1935 ई. का अधिनियम (Act of 1935)

 1935 का अधिनियम (Act of 1935)

1930, 1931 और 1932 ई. के गोलमेज सम्मेलनों में किये गये विचार के आधार पर मार्च, 1933 में भावी सुधार योजना के संबंध में एक 'श्वेत-पत्र' (White Paper) प्रकाशित किया गया, जिसमें प्रांतों  में उत्तरदायी शासन व्यवस्था और केन्द्र में आंशिक उत्तरदायी शासन की स्थापना का सुझाव दिया गया था। 'श्वेत-पत्र' के सुझावों को स्वीकार करते हुए ही ब्रिटिश सरकार द्वारा 1935 के 'भारतीय शासन अधिनियम' का निर्माण किया गया।

    अधिनियम की विशेषताएं

    प्रस्तावना

        1935 के अधिनियम में कोई नई प्रस्तावना नहीं जोड़ी गई, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने इस अधिनियम के लक्ष्य के संबंध में किसी नई नीति की घोषणा नहीं की थी, जिससे कि अधिनियम के उद्देश्य का ज्ञान हो सके। 1919 के अधिनियम को रद्द करने के बावजूद उसकी प्रस्तावना को 1935 के अधिनियम के साथ जोड़ दिया गया, जिससे भारतीयों को यह बताया जा सके कि ब्रिटिश सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना करना है।

    लंबा प्रलेख

    1935 का भारतीय शासन अधिनियम एक बहुत लंबा और जटिल प्रलेख था, इसमें 14 भाग, 321 धाराएँ और 10 परिशिष्ट थे। इसमें केन्द्रीय और प्रांतीय  सरकारों के ढाँचे का विस्तृत वर्णन किया गया था।

    ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता

    1935 के अधिनियम में संशोधन सुधार या रद्द करने का अधिकार ब्रिटिश संसद के पास रखा गया। अधिनियम में किसी प्रकार के परिवर्तन का अधिकार प्रांतीय  विधान मण्डल तथा संघीय व्यवस्थापिका को नहीं दिया गया। इस प्रकार भारतीय भाग्य के निर्णय की अंतिम सत्ता ब्रिटिश संसद के पास बनी रही।

    प्रांतीय  स्वायत्तता

    1935 के अधिनियम की सबसे बड़ी विशेषता प्रांतीय  स्वायत्तता की स्थापना थी। प्रांतों  से द्वैध शासन के प्रावधानों को समाप्त कर दिया गया। अब प्रांतों  को एक नया संवैधानिक दर्जा दे दिया गया, उनको अपने आंतरिक मामलों में पूर्ण स्वायत्तता प्रदान कर दी गई।

    केद्र में द्वैध शासन की स्थापना

    1935 के अधिनियम द्वारा प्रांतों  में द्वैध शासन प्राणाली को समाप्त कर दिया गया, किंतु अब उसे केन्द्र में लागू कर दिया गया। केन्द्रीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया-रक्षित विषय और हस्तांतरित विषय। रक्षित विषय में प्रतिरक्षा, चर्च संबंधी मामले, विदेशी मामले, कबीलों के मामले शामिल थे, जिनका शासन गवर्नर जनरल अपनी इच्छानुसार चला सकता था। हस्तांतरित विषयों का संचालन गवर्नर एक मंत्रिपरिषद् की सहायता से करता था। ये मंत्री विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी होते थे एवं मंत्रियों की संख्या 10 से अधिक नहीं हो सकती थी। ये गवर्नर जनरल द्वारा नियुक्त और पदच्युत किए जाते थे।

    संघीय शासन व्यवस्था

    1935 के अधिनियम के अनुसार यह निर्णय किया गया, कि केन्द्र में ब्रिटिश प्रांतों  और देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ स्थापित किया जाएगा। यह संघ 11 ब्रिटिश गवर्नर प्रांतों , 6 चीफ कमिश्नर प्रांतों और देशी रियासतों को मिलाकर बनाया जाना था किंतु देशी रियासतों द्वारा संघ में सम्मिलित न होने के कारण प्रस्तावित संघ की स्थापना न हो सकी।

    विषयों का बँटवारा

    1935 के अधिनियम द्वारा विषयों को तीन सूचियों में बाँटा गया-संघीय सूची, प्रांतीय  सूची और समवर्ती सूची। संघीय सूची में 59 विषय, प्रांतीय  सूची में 54 विषय और समवर्ती सूची में 36 विषय रखे गए।

    संघीय न्यायालय

    इस अधिनियम द्वारा भारत में एक संघीय न्यायालय की स्थापना भी की गई, जिसका प्रमुख कार्य संघ सरकार और इकाइयों के मध्य उत्पन्न होने वाले विवादों का निपटारा करना था। किन्तु यह भारत का सर्वोच्च न्यायालय नहीं था, क्योंकि विशेष परिस्थितियों में इसके निर्णयों के विरूद्ध प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।

    संरक्षण और आरक्षण

    प्रांतीय  क्षेत्र में स्वराज व केन्द्र में अधिकांश उत्तरदायी शासन दोनों पर ही अनेक सीमाएँ एवं प्रतिबंध लगाये गए थे। अधिनियम में विशेष हितों और अल्पमतों की रक्षा के लिए अनेक संरक्षणों तथा आरक्षणों की व्यवस्था की गई थी। गवर्नर जनरल और गवर्नरों पर विशेष उत्तरदायित्व सौंपे गए थे, जिनके लिए उन्हें अपार शक्तियाँ दी गईं, ताकि वे शासन पर प्रभावशाली नियंत्रण रख सकें।

    विधान मण्डलों और मताधिकार का विस्तार

    1935 ई. के अधिनियम द्वारा प्रांतीय और केन्द्रीय विधान मण्डलों की सदस्य संख्या में भी काफी वृद्धि की गई। केन्द्र में विधान सभा के सदस्यों की संख्या 275 और राज्य सभा के सदस्यों की संख्या 260 निर्धारित की गई। इसी प्रकार प्रांतीय विधान मण्डलों का आकार भी लगभग दुगुना कर दिया गया और 6 प्रांतों  में विधान मण्डलों को दो सदनों वाला बनाया गया एवं मताधिकार का भी विस्तार किया गया। प्रांतों के लिए 10 प्रतिशत जनता को वोट देने का अधिकार दिया गया। सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति को कायम रखा गया, इनमें हरिजनों के लिए भी सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति का प्रावधान किया गया।

    भारतीय परिषद् की समाप्ति

    1935 ई. के अधिनियम द्वारा भारतीय परिषद् को समाप्त कर दिया गया। इसके स्थान पर सचिव के लिए कुछ परामर्शदाता नियुक्त किए गए, जिनकी संख्या कम से कम 3 और अधिक से अधिक 6 निर्धारित की गई।

    बर्मा, बरार और अदन

    इस अधिनियम द्वारा बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। अदन को भारत सरकार के नियंत्रण से मुक्त करके इंग्लैण्ड के उपनिवेश कार्यालय के अधीन कर दिया गया। यद्यपि बरार के ऊपर निजाम हैदराबाद की नाममात्र की सत्ता स्वीकार कर ली गई, किंतु उसको शासन की दृष्टि से मध्य प्रांत का अंग बना दिया गया।

    अधिनियम की आलोचना

    1935 ई. के अधिनियम को 1 अप्रैल, 1937 को लागू कर दिया गया। किंतु इस अधिनियम के संघीय सरकार से संबंधित प्रावधानों को लागू नहीं किया गया और केवल प्रांतों से संबंधित प्रावधानों को ही लागू किया गया।

    इस अधिनियम के अनेक दोष थे और भारत के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इस अधिनियम की कटु आलोचना की थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने इसको पूर्ण रूप से रद्दी, बुनियादी रूप से बुरा और स्वीकार करने के पूर्णतया अयोग्य बताया। पण्डित मदन मोहन मालवीय ने कहा, कि यह एक्ट ऊपर से लोकतंत्रीय है, परंतु अंदर से खोखला है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने इस अधिनियम की आलोचना करते हुए कहा, कि 1935 का अधिनियम दासता का एक नया अधिकार-पत्र (चॉर्टर) था।



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