प्रस्तावना (उद्देशिका) | Indian Polity Exam Notes

 प्रस्तावना (उद्देशिका)

प्रस्तावना, भारतीय संविधान की मूल कुंजी है, जिसमें संविधान के मूलभूत आदर्शाें एवं उद्देश्यों का वर्णन है। प्रस्तावना में वर्णित ये आदर्श संविधान सभा द्वारा 22 जनवरी, 1947 को उद्देश्य प्रस्ताव के रूप में स्वीकार किये गये थे, जिसमें भारत में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय स्थापित करने का संकल्प लिया गया था। प्रस्तावना में संविधान का मूल दर्शन अंतर्निहित है। यह भारतीय संविधान की जन्म कुण्डली है।

   कॉर्ल फ्रेड्रिक के अनुसार, "प्रस्तावना, के द्वारा वह जनमत प्रकट होता है, जिससे संविधान अपनी शक्ति प्राप्त करता है।' नेहरू के अनुसार, "प्रस्तावना में, दो महान क्रांतियों के आदर्शाें का वर्णन है। प्रस्तावना में, फ्रांसीसी क्रांति का दर्शन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व का वर्णन है। रूसी क्रांति के सामाजिक, आर्थिक न्याय के अादर्शाें को भी सम्मिलित किया गया है।

शक्ति का स्रोत-

   प्रस्तावना में, संविधान की शक्ति के स्रोत का वर्णन है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है, कि हम भारत के लोगों ने संविधान का निर्माण किया तथा उसे स्वयं स्वीकार किया। अतः संविधान किसी विशेष समूह या व्यक्ति द्वारा निर्मित नहीं है, अपितु इसका निर्माण जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा किया गया।

आदर्श-

   प्रस्तावना में, भारतीय संविधान के मूलभूत आदर्शाें का वर्णन है। डॉ. अंबेडकर के शब्दों में, "स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी है और संविधान का मूलभूत उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक लोकतंत्र को स्थापित करना है।' ग्रेनविल ऑस्टिन के अनुसार, "भारतीय संविधान, मूलतः सामाजिक क्रांति का दस्तावेज है तथा प्रस्तावना में वर्णित निम्नलिखित आदर्श इसी की ओर संकेत करते हैं'-

(i) सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय।

(ii) विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता।

(iii) प्रस्थिति और अवसर की समानता।

(iv) सभी नागरिकों में बंधुता की भावना का विकास और व्यक्ति की गरिमा के साथ राष्ट्र की एकता, अखंडता की रक्षा करना।

 भारतीय संविधान के विभिन्न भागों में सामाजिक, आर्थिक न्याय स्थापित करने के अनेक प्रावधानों का उल्लेख है। मूल अधिकार के भाग और निदेशक तत्वों के भाग में संविधान की अंतर्रात्मा निहित है। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों, पिछड़े वर्गाें और महिलाओं के कल्याण के विशेष उपाय भी वर्णित हैं। इसलिए प्रस्तावना को संविधान की जन्म कुंडली भी कहा जाता है।

सरकार की प्रणाली-

  प्रस्तावना में, वर्णित उपरोक्त आदर्शाें को पूर्ण करने के लिए सरकार की प्रणाली का भी स्पष्ट वर्णन है। इस के अनुसार, "भारत संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य शासन के मूलभूत आधार स्वीकार किये गए।' संप्रभु का अभिप्राय, आंतरिक रूप में सर्वशक्तिशाली और बाह्य रूप में स्वतंत्र हैं। वर्ष-1947 में भारत, ब्रिटिश साम्राज्ञी की अधीनता से मुक्त हो गया।

   समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द, 42वें संविधान संशोधन (वर्ष-1976) द्वारा जोड़ा गया। संविधान में समाजवाद का अर्थ स्पष्ट नहीं है। इसे स्पष्ट करते हुए वर्ष-1955 के कांग्रेस के आबादी अधिवेशन में स्पष्ट किया गया, कि समाजवाद का आशय, "सभी लोगों के जीवन की न्यूनतम सुविधाएँ प्रदान करना, अवसर की समानता और समाज में शोषण एवं विभेदों को समाप्त करते हुए, समाज के समाजवादी ढाँचे का निर्माण करना। इंदिरा गाँधी के अनुसार, हमारे समाजवाद का एक अलग रूप है। यह सोवियत संघ से भिन्न है। भारत में राष्ट्रीयकरण तभी किया जाएगा, जब आवश्यकता होगी। केवल राष्ट्रीयकरण हमारे समाजवाद का अभिप्राय नहीं है। यह बिन्दु ध्यान देने योग्य है, कि संविधान सभा में प्रो. के. टी. शाह ने प्रस्तावना में, समाजवाद शब्द जोड़ने का आग्रह किया था। परंतु डॉ. अंबेडकर ने इसे अस्वीकृत कर दिया। इनके अनुसार, समाजवाद, भारतीय संविधान में अंतर्निहित है। इसलिए इसे 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़कर स्पष्ट बना दिया गया।

   यह बिन्दु अत्यधिक दिलचस्प और उल्लेखनीय है, कि पंथनिरपेक्षता शब्द, को भी डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में प्रस्तावना में सम्मिलित करने से इनकार कर दिया था, क्योंकि इनके अनुसार, "भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता अंतर्निहित है और प्रस्तावना में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता पहले ही अपनाया जा चुका है। इसलिए पंथनिरपेक्ष शब्द को जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। 42वें संविधान संशोधन द्वारा इसे भी प्रस्तावना में सम्मिलित किया गया।

  पंथनिरपेक्ष शब्द भी परिभाषित नहीं है। सामान्यतः पंथनिरपेक्षता का आशय, राज्य द्वारा सभी धर्माें के प्रति समान सम्मान प्रदर्शित करना है। इसके अनुसार, "राज्य का कोई धर्म नहीं होगा, अपितु धर्म, व्यक्ति विशेष का होगा।' अतः भारत में धर्म और राज्य के मध्य स्पष्ट विभाजन किया गया। इससे स्पष्ट है, कि भारत जैसे विविधतापूर्ण और बहुलता वाले देश में सभी धर्मावलंबियों का महत्व समान है।

  प्रस्तावना में, राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता बनाए रखने पर भी महत्वपूर्ण बल प्रदान किया गया है, क्योंकि जिस समय भारत स्वतंत्र हुआ, तत्कालीन समय में देश की राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता (अखण्डता शब्द 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया) के समय निम्नलिखित चुनौतियाँ विद्यमान थीं-

(i) देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय।

(ii) उत्तर-पूर्वी राज्यों में आतंकवाद या अलगाववाद।

(iii) पाकिस्तान द्वारा जम्मू और कश्मीर में कबायली आक्रमण।

(iv) देश में भयंकर सांप्रदायिक दंगे।

निर्माण की तिथि-

   भारतीय संविधान में, संघ सरकार को शक्तिशाली बनाया गया है। राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के हित में मौलिक अधिकारों पर भी प्रतिबंध का प्रावधान है। प्रस्तावना में, संविधान के निर्माण की तिथि (26 नवंबर, 1949) का भी उल्लेख है।

प्रस्तावना, संविधान का भाग है, अथवा नहीं-

  प्रस्तावना में, भारतीय संविधान के मूल आदर्शाें एवं उद्देश्यों का वर्णन है। बेरूबाड़ी केस-1960 में न्यायपालिका के अनुसार, "प्रस्तावना, संविधान का भाग नहीं है, क्योंकि संविधान सर्वोच्च विधि है, जिसमें आदर्शाें और उद्देश्यों का महत्व नहीं होता। परंतु केशवानंद भारतीवाद-1973 में न्यायपालिका ने बेरूबाड़ी के निर्णय को पलट दिया। प्रस्तावना को, संविधान का अभिन्न भाग माना, क्योंकि प्रस्तावना में, वर्णित आदर्श और उद्देश्य संविधान की मूल आत्मा है। न्यायपालिका के अनुसार, "प्रस्तावना का प्रयोग संविधान की व्याख्या के लिए किया जा सकता है, क्योंकि भारतीय संविधान, केवल शासन संचालन का एक माध्यम मात्र नहीं है, बल्कि मूलतः सामाजिक क्रांति का दस्तावेज है। मूल प्रश्न उत्पन्न होता है, कि प्रस्तावना के किन भागों का संशोधन किया जा सकता है। न्यायपालिका के अनुसार, 'जो भाग मूल ढाँचे के अंतर्गत् सम्मिलित नहीं है, उनका संशोधन किया जा सकता है। परंतु मूल ढाँचे में सम्मिलित भाग का संशोधन नहीं किया जा सकता।



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